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आखिरी रात

शाम होने लगी थी. साए फैलने शुरू हो गये थे. पहाड़ों में अँधेरा जल्दी ही फैलने लगता है क्योंकि सूरज ओट ले लेता है और किरणें हल्की होते ही वातावरण में मौजूद वाष्प जल्दी ही कोहरे में बदलने लगती है. खासकर अक्टूबर के इस महीने में ऐसा होता है. मैं सुजान सिंह की चक्की पर बैठा उसे सुन रहा था, ‘‘अरे साहब! पहले तो कसौली में शाम और भी जल्दी घिर जाती थी. तब यहाँ की पहाडि़याँ और तलहटी हरी-भरी थीं. न यहाँ कसौली बाजार था, न जगह-जगह ठहरने के लिए होटल या लॉज और न ही बालकनाथ का मन्दिर. पतली-सी सड़क कालका से शिमला तक की अंग्रेजों ने बनवा रखी थी. घटमपुर से बायें मुड़ने पर टेढ़े-मेढ़े रास्ते से कसौली पहुँचा जा सकता था पहाडि़यों की ढलानों पर कच्चे-पक्के मकान थे. फौज का बड़ा अड्डा था कसौली. कल भी और आज भी फौज के अधीन है कसौली. उनके कैन्टोनमेंट में बंगले और बैरकें हैं, सी.एसडी. कैन्टीन, सिनेमाघर, खेल के ऊबड़-खाबड़ और जाने क्या-क्या है. हाँ, कसौली में तब भी मशहूर सेनीटोरियम था जो आज भी है. ऊँचे घरों के मरीज हवा पानी की वजह से भर्ती होते थे. कसौली इसी सेनीटोरियम की वजह से जाना जाता था मगर क्या कहें कि एंटीबायोटिक्स की ईजाद ने इस बीमारी को कम कर दिया. जगह-जगह खुल गये टीबी. के अस्पताल और यहाँ का सेनीटोरियम बस नाम का रह गया. सुना है कि अमरीका खोजने वाला कोलम्बस भी टीण्बी. से मरा था’’

फिर बताने लगा, ‘‘हवा-पानी की दौड़ में सिविल एजेंसियों ने नेताओं को जा पकड़ा. फौजी ज्यादा दखलअन्दाजी पसन्द नहीं करते थे सो शिमला में संझोली की तरह यहाँ बस गया गढ़कल जहाँ हमारी चक्की लगी है. एक साहब कह रहे थे कि तुम तो गढ़कल में कारोबार करते हो, तुम्हें क्या मालूम होगा कसौली के बारे में, तो हमने बताया कि पाँच पुश्तों से तो हमारा परिवार कसौली में ही रहा है. जहाँ आज बाजार है उसी टीकरी पर था हमारा मकान. बाबा ने खालिस पत्थर और ईटों से बनवाया था हाँ दीवारों पर सीमेंट का पलस्तर नहीं था हमारा ही क्या और मकान भी अधपक्के और अधकच्चे थे. बाबा फौज में थे. एक ही बेटा था उनका सो दादी ने फौज में नहीं जाने दिया. बाबा रिटायर हो के आ गये तो फौजी कप्तान से फरियाद कर बापू को सब्जी ठेकेदार बनवा दिया. सप्ताह में दो दिन परवान या कालका जाकर सब्जी लाते. शाम की बस से जाते और रात वहीं रुककर सुबह बस की छत पर सब्जी रखवाकर लाते. उन दिनों कसौली के रहने वालों की कुल आबादी थी सत्तानवे, पूरी सौ भी नहीं. एक ही दुकान थी फट्टोंवाली भरवानू की. वहीं तरकारी, गोश्त, बर्तन भांडे और कपड़ा मिलता था आज कसौली बाजार में बड़ा स्टोर चलाते हैं भरवानू के खानदानी. तीस-चालीस तो अंग्रेजी बोलने वाले छोकरे काम करते हैं मजे की बात है कि अंग्रेजों के जाते ही हिन्दुस्तानियों के बच्चे धड़ाधड़ अंग्रेजी बोलने लगे हैं.’’

सुजान बताता है, ‘‘कसौली में तब कोई स्कूल नहीं था धरमपुर के पास स्कूल में जाता था बस से पर तब भी पाँच छह मील तो पैदल चलना ही पड़ता था अठारह की उम्र में आठवीं की तभी वह बस जो कालका जाती है खड्ड में गिर गयी बापू न रहे. सब्जी सप्लाई करने का काम मुझे पकड़ना पड़ा. 1972 के दिन थे फौज बढ़ रही थी सो मेजर सभ्भरवाल बोले, वेजीटेबल सप्लाई का काम दूसरे को दे रहे हैं तू फौज में आ जा और मैं भर्ती हो गया. बाबा दादी और अम्मा बहुत बिलखे पर मैं न माना. दो साल में ही बाबा, दादी निपट गये और मेरी शादी हो गयी देखो, छप्पन साल की उम्र में भी फिट-फाट हूं .’’

‘फिट-फाट’ कहते हुए एक परर्छाइं-सी सुजान के चेहरे पर उभर के गायब हो गयी सुजान कह रहा था, ‘‘चंडीगढ़ बनते ही कसौली बदलती गयी गढ़कल उभर आया. साई बाबा का शानदार मन्दिर बन गया. होटल धड़ाधड़ खुलने लगे. कसौली में हिमाचल टूरिज्म वालों ने रेस्त्राँ खोल दिया. शनिवार इतवार और छुट्टी के दिनों में मैदानी भीड़ कसौली, धरमपुर, शिमला या चहल पहुँचने लगी कार, टैक्सी, और बसों से. मगर कसौली पर फौज ने अपना कन्ट्रोल नहीं छोड़ा इसीलिए सैकड़ों बंगले, होटल और बाजार उभरने पर भी साफ सुथरा है. घुसने का ऊँचा टोल टैक्स वसूलते हैं और इस्तेमाल करते हैं’’

‘‘आपके बच्चे?’’ मैं पूछता हूं .

‘‘लड़की जावली में ब्याही है मैट्रिक के बाद, बड़ा प्राणसिंह आई.ए.एस. की तैयारी कर रहा है. लाख कहा कि चक्की संभाल, व्यापार कर मगर माना ही नहीं. छोटा किशन सिंह डॉक्टरी के दूसरे साल में है मंडी में.’’

‘‘मतलब कि पढ़े-लिखे हैं और गाँव के हिमाचली बच्चों की तरह दुशवारियों से दूर हैं’’

‘‘दुशवारियाँ क्या साहब! जिन्दगी पहले भी चलती थी रेंगते हुए अब कुछ तेज भाग रही है. मगर मेरा घर तो नयना ने बदल के रख दिया है’’ हँसा सुजान सिंह, फौज से हवलदार हो के निकला था आप तो जानो कि फौजी बस्तियों की हवा ही दूसरी होती है. अफसरों की बीवियाँ कोई न कोई परोपकार वगैरह का काम करती रहती हैं तो जेसीओ और एन.सी.ओ की औरतें कभी कढ़ाई-बुनाई, नाच-गानों के कम्पटीशन और नहीं तो तम्बोला में लगी रहती हैं अपनी नयना भी आठ-दस रोट सेंक चली जाती है श्रीमाली क्लब. श्रीमाली जी अपंग हैं. उनकी घरवाली औरतों का गिरोह बनाये है. मटन, मुर्गा, कटहल, आम, नींबू और खट्टे का अचार डालना, कपड़े सिलना, मिट्टी के बर्तन बनाना और गँवारू आर्ट सिखाती है क्लब में. औरतों को नयना के साथ बैठ सिखाती हैं कि चौके में कम से कम वक्त गुजारो. घर को समृद्ध करो. ये नहीं कि औरतें माता के मन्दिर में जाकर भेटें गायें उन्हें आँगन में बैठा नये गीत गवाती हैं कहती हैं कि दुख सहते हुए गीत गाने से शक्ति बढ़ती है. पर क्या आदमी के बगैर बदले औरत बदल सकती है? नयना दाहिना हाथ है मालिनी श्रीमाली का. दोनों मिलकर औरतों की क्लब चलाएँ.’’

‘‘फौज में नौकरी के बाद चक्की पर बैठना अच्छा नहीं लगता होगा?’’

हो-हो कर हँसा सुजान सिंह, ‘‘फौजी आँख खुलने के बाद रिटायर होता है. पहले सोचा कि प्रापर्टी डीलर बन जाऊँ. फिर लगा कि इस काम में सुबह से शाम तक झूठ बोलना पड़ेगा. गृहस्थी भी संभालनी थी. बाजार की टीकरी का मकान ऊँची कीमत पर गया जिससे नया मकान और ये दुकान बना सका. जो रिटायरमेंट से मिला उसे एफ.डी. में रखा और पेंशन हर महीने आती ही है. फौजी अफसर और पढ़े-लिखे पहाड़ी बोरी का आटा नहीं खाते हैं सब हमारे यहाँ से पिसवाते हैं क्‍योंकि दस किलो वाली बोरी का आटा मैदा जैसा होता है जो आँतों से चिपक जाता है. देह फुला देता है बारीक आटा और आँतें पिचका देता है. मतलब ये कि फौजी अफसर सालाना मेडिकल में फेल.’’

‘‘तो चलूँ’’, मैं कहता हूँ.

‘‘बस आखरी कनस्तर डाला है गन्दम का. उसके पिसते ही दुकान बन्द कर दूंगा. शाम हो ही चली है, ठंडी हवा चलने लगी है. रात कड़ाका बोलने लगेगा. आप बैठो चाय मंगाता हूँ. नयना भी आने वाली है.’’

तभी छींटिया कुर्ते पर बाहेंदार जैकिट डाले एक औरत पर नजर पड़ती है जिसने घिरती हुई शाम से भी काला चश्मा पहना हुआ था मुझे महसूस हुआ कि रख-रखाव की बजह से यह औरत जो चालीस की लग रही है जरूर बड़ी होगी. बाल भी गहरे काले डाई कर रखे हैं इसने. दुकान में प्रवेश करते ही चश्मा उतारती है. उसकी आखों में गहराई और उदासी दोनों नजर आती हैं मुझे. आँखों में एक लम्बी-सी गुफा नजर आयी मुझे.

सुजान को देख कहती है, ‘‘यहाँ का मेरा काम खत्म हो गया है. कसौली बाजार से मुझे कुछ खरीदना है.’’

‘‘गल्ले में काफी नोट हैं, चाहिए तो ले लो.’’

तभी चाय आ जाती है. दो गिलासों की चाय, चक्की पर रखे तीसरे गिलास में भी डाली जाती है. औरत इठलाते हुए कह रही थी, ‘‘बाजार के लोग अभी भी मुझे टूरिस्ट समझ लेते हैं दाम बढ़ाकर बताते हैं तुम्हें सब जानते हैं और बाजार भाव से कम दाम लगाते हैं’’

सुजान हो-हो कर हँसता है और कहता है, ‘‘साहब ये मेरी घरवाली नयना है. असली नाम तो शादी के बाद ही मिट गया था इसकी आँखों की गहराई देख कुछ दिन सुनयना बुलाता रहा और बाद में नयना’’ हँसा फिर सुजान, ‘‘ये देवेन बाबू हैं क्या कहें, फ्रीलांस जर्नलिस्ट! क्लाइमेक्स ग्रुप के लिए कसौली पर आलेख व सचित्र किताब बनाने का काम इन्हें यहाँ ले लाया है.’’

क्लाइमेक्स ग्रुप का नाम सुनते ही नयना की उसके प्रति मुद्रा बदल गयी, ‘‘इधर-उधर क्यों भटकते हैं देवेन जी श्रीमाली क्लब आइये पूरा कसौली आपको वहाँ मिलेगा, नया भी बहुत है कसौली में. पुराना इतिहास और आसपास के गाँव तो आप झाँक आये होंगे. जितना ऊपर जाएंगे औरत की तकलीफ बढ़ती जाएगी.’’

‘‘जी, जरूर आऊँगा. कहते हुए चाय पीने लगता हूँ. मैं देखता हूँ कि जहाँ सुजान सुर्र-सुर्र की आवाज निकालते हुए चाय पी रहा था वहीं नयना जी सिप कर रही थीं.

अनायास नयना देवी पूछती हैं, ‘‘कहाँ रुके हैं?’’

‘‘कसौली बाजार में होटल मीनाक्षी! कमरा नम्बर एक सौ सात!’’

‘‘महंगा होटल है. बाजार के बहुत करीब होने से दुकानदारों की लूट तो देखी होगी. विदेशी टूरिस्ट बहुत कम आता है कसौली. यहाँ का बाजार हिन्दुस्तानी पर्यटकों को ही लूटता है. पर इस लुटने में फख्र महसूस करते हैं पर्यटक भी. खुद को ऊँचा और ऊँचा महसूस करते हैं. शायद पैसे की इफरात कारण हो पर किसी गरीब की गरीबी वे दूर नहीं करना चाहते हैं क्यों ?’’

मुझे महसूस हुआ कि सुजान से बेहतर मालूमात नयना देवी के पास होंगी. उसके पास गहरी विश्लेषण बुद्धि भी है. मगर लिबास और मेकअप इसे सामान्य कसौली के पहाड़ी लोगों से दूर कर देता है. उम्र से कम दिखाई देने के प्रयत्न के पीछे भी कोई वजह होगी जबकि सुजान पाजामा-कुर्ता और बन्द गले के कोट में पूरा पहाड़ी नजर आता है.

सुजान जब दुकान में ताला डाल रहा था नयना देवी कहती हैं, ‘‘हम सब कसौली जा रहे हैं. क्यों न आप रात का खाना हमारे साथ खायें. घर भी मुश्किल से दो फर्लांग पर है हमारा. छोटी टीकरी नम्बर-2. सिर्फ दोमंजिला इकलौता मकान है हमारा. आसपास के सारे बंगले हैं, एक मंजिला.’’

सुजान प्रस्ताव सुनकर पास आ जाता है, ‘‘नयना बहुत बढि़या मुर्गा पकाती हैं’’ हँसती है नयना, ‘‘पीने का भी इंतजाम रहेगा.’’

ठीक है. रात का खाना वहीं खाऊँगा पर आप शापिंग कर चाय मेरे साथ होटल में पियेंगे.’’

‘‘यह भी कोई शर्त हुई’’ नयना कहती है. तीनों पाँच मिनट बाद कसौली जाने वाली मिनी बस में थे. मिनी बस ऑक्ट्राय पर हमें उतार जाने के लिए मुड़कर खड़ी हो जाती है.

रात वक्त पर पहुँच जाता हूँ. पहली मुलाकात प्राणसिंह से होती है. बाईस वर्षीय प्राणसिंह को किताबी कीड़ा पाता हूँ. सुजान सिंह आदत के हिसाब से कुछ ज्यादा ही पी गया. प्राणसिंह इसे कमरे में सुलाने ले गया. अब डायनिंग टेबल पर दो ही व्यक्ति थे. नयना देवी की चितवन में एक अजीब-सा लुभावना भटकाव था दो पैग पीने से आँखे खुमार से भर गयी थीं और उम्र दस साल वाकई घट गयी थी. वे कह रही थीं, ‘‘पहाड़ को समझने के लिए यहाँ की औरत को समझना होगा. परम्पराओं से पहाड़ी काम पाने के लिए मैदानों की तरफ दौड़ता रहा है या फौज में दाखिल होता रहा है. घर-बार, बच्चे, खेत-खलिहान, सास-ससुर और दूरी से पानी लाने की जिम्मेदारी औरत निभाती रही है. मैदान में पुरुष क्या नहीं करता है पर जानता है कि जिम्मेदारी और काम के बोझ से औरत इतनी थक जाती होगी कि पुरुष की आवश्यकता भी वह महसूस नहीं करती होगी. उसकी थकान उसकी चेस्टिटी बेल्ट बन जाती है. पुरुष पहाड़ का हो या मैदान का औरत से ज्यादा चालाक होता है.’’

‘‘इसे संयम नहीं कह सकते हैं क्या? इसीलिए पहाड़ पर एड्स का नाम कम है.’’

‘‘क्या तुम्हें है?’’

‘‘नहीं!’’

‘‘तुम पुरुष हो इसीलिए कुछ भी कह सकते हो. खैर, तुम्हें अपनी कहानी सुनाती हूँ जो सिर्फ एक-दो को मालूम है. शुरू में मेरे तीन गर्भपात हुए इसीलिए बड़ा प्राणसिंह सिर्फ बाईस साल का है. फिर तीन हुए जो जिन्दा हैं. हवलदार हो गया था सुजान. मैं गर्मियों में कसौली आयी हुई थी बच्चों के साथ. तभी मुझे नार्थ ईस्ट जाना पड़ा. सुजान को बुरी बीमारी लग गयी थी किसी औरत से. अस्पताल में था इलाज से आपरेशन के बाद ठीक हुआ मगर उसका पुंसत्व हमेशा के लिए मुरझा गया था तब मेरी उम्र चौंतीस-पैंतीस की थी. उस उम्र में औरत को आदमी की सबसे ज्यादा जरूरत होती है. फौज से रिटायर हो हम कसौली आ गये. सुजान के अन्दर मुझे लेकर बहुत शर्म थी. वह जानता था कि पाप उसने किया है पर फल मुझे भी भुगतना पड़ रहा है. उसने मुझे आजाद भी करना चाहा था मगर मैंने सिर्फ बदलाव चाहा. इसीलिए मेरे रहन-सहन और काम को सुजान स्वीकार सका. और मैं चौदह-पन्द्रह साल से कुँवारी हूँ.’’

‘‘ओह.’’

तभी वर्षा शुरू हो गयी बत्ती भी चली गयी नयना ने कमरे की एमरजेंसी लाइट जला दी. खिड़की से झाँककर बोली, ‘‘यह वर्षा दो घंटे से पहले बन्द नहीं होगी. तुम यहीं सो जाओ! एक पैग और लगा लो. अच्छी नींद आयेगी.’’

मुझे लगा कि नयना देवी अपना पन्द्रह साल का कुँवारापन मुझे सौंपना चाहती है. मन ही मन मुस्कराता हूँ. एक साफ-सुथरे कमरे में मेरा बिस्तर लगा दिया जाता है. नयना देवी के इन्तजार में काफी देर आँखें खुली रखना चाहता हूँ मगर वे नहीं आयीं और मुझे पता भी नहीं चला कि कब आँख लग गयी सुबह नौ के बाद आँख खुली. खिड़की से झाँककर देखा तो आसमान साफ था और रात का पानी तलहटी में पहुँच वहाँ दलदल जैसा तैयार कर चुका था सुजान जा चुका था और प्राणसिंह लायब्रेरी जा चुका था.

आधे घंटे में फारिग होकर मैं नाश्ता कर रहा था नयना देवी कहती हैं, ‘‘आप होटल जाकर कपड़े बदल लें. मैं घर का काम निपटाकर होटल से ही श्रीमाली क्लब ले चलूंगी. जब नीचे होटल के द्वार पर पहुँचा तो नयना देवी पंजाबी सूट पहने मेरा इंतजार कर रही थीं. पैदल चलते हुए एक टीकरी पर हम पँहुच गये जहाँ से नीचे की हरियाली देखकर मन प्रसन्न हो गया. टीकरी के आगे बोगनविलिया महराब की तरह फैली थी. फिर आगे एक गेटदार बंगले के अन्दर हमने प्रवेश किया. बंगला काफी बड़ा था और पुराना भी नहीं लग रहा था नयना देवी एक कमरे मे ले जाती हैं जहाँ डबलबैड के पास दो कुर्सियाँ भी रखी थीं. डबलबैड पर कलफदार कुर्ते-पाजामे में श्रीमाली जी लेटे हुए थे.

श्रीमाली जी संक्षेप में अपनी दास्तान बताते हैं कि, ‘पिता शिमला में रहते थे. वहीं पढ़ाई-लिखाई हुई. वे पीडब्‍ल्‍यूडी में इंजीनियर बन गये. मगर माता-पिता के गुजर जाने के बाद शिमला उन्हें पसन्द नहीं रहा. मालिनी और उन्हें कसौली बहुत पसन्द आयी थी. न यहाँ शिमला जैसी सर्दी थी और न गर्मी. फिर बीस साल की नौकरी के बाद उन्हें पक्षाघात हुआ. बंगला तैयार ही था यहाँ आकर बस गये. मालिनी के ऊपर बसंत और मेरी दोनों की जिम्मेदारी आ गयी फिर बसंत ने चंड़ीगढ़ से एम. एड. कर अपना प्राइवेट स्कूल खोला, रेड कार्पेट मगर मालिनी के दिमाग में औरत की परेशानियाँ जमी थीं. श्रीमाली क्लब फॉर लेडीज उसी की तस्वीर है.

‘‘बसंत का स्कूल कैसा चल रहा?’’

‘‘सबसे महँगा और हॉस्‍टल वाला नामी स्कूल है. कसौली के अखीर और गढ़कल से पहले पहाड़ी पर तुमने लाल इमारत देखी होगी. नीचे बसें खड़ी रहती हैं कसौली के दो-एक नेता, फौज के चार छह बड़े अफसर व दुकानदारों के कुछ लड़के पढ़ते हैं वहाँ, बाकी तो बाहर के इलीट क्लास के बच्चे हैं­’’

‘‘मतलब यह कि कसौली में होकर भी कसौली वालों के लिए नहीं हैं स्कूल और श्रीमाली क्लब.’’

मेरी बात श्रीमाली जी को अच्छी नहीं लगी थी. बोले, ‘‘पैसे और वक्त की बरबादी है श्रीमाली क्लब! हर औरत 250 प्रतिमाह देती है और उतना ही खर्च करा लेती है. चार कमरे भी किराए पर देता तो पन्द्रह हजार मिल जाते. पर मालिनी का मन इसी में खुश है तो मुझे भी खुशी है.’’

‘‘क्या क्लब में गरीब औरतें भी आती हैं?’’

‘‘सवाल ही नहीं हैं उन्‍हें पेट भरने लिए चौबीस घंटे का भी दिन नाकाफी रहता है. पहले तो मिडिल क्लास की औरतें आती थीं अब कुछ हाई-सोसायटी की औरतों भी आने लगी हैं’’

‘‘मतलब यह कि गरीब औरत के जीवन में परिवर्तन आये, ऐसा कुछ नहीं होता है.’’

‘‘गरीबी अपने में अभिशाप है. इसमें न पुरुष और न ही औरत मुक्ति पा सकती है. आज भी बहुत नहीं बदला है उनका जीवन. अँधेरे, तंग घर, गन्दगी से भरपूर जगहों पर वे रहते हैं इनके श्रम की कीमत भी नहीं है और न निरन्तरता.’’

‘‘आपने ठीक कहा. श्रम का मूल्य नहीं बढ़ा है. हवाई जहाज के किराए बढ़ते हैं, टैक्सी और ऑटो के बढ़ाए जाते हैं पर रिक्शे का किराया हमेशा हुज्जत का विषय रहा है.’’

‘‘मिडिल क्लास चेतना का द्वार है. आजादी के लिए लड़ने वाले क्रांतिकारी भी ज्यादातर मिडिल क्लास से थे. ये मिडिल क्लास ही ऊपर बढ़ने के साधनों को पहचानकर अपने दुखोें से मुक्त हो रहा है.’’

पक्षाघात के बावजूद श्रीमाली जी के रिश्वती चरित्र में पैसे के पीछे भागने की लालसा कम नहीं हुई थी. बसंत उनकी निगाह में ऊँचा था और मालिनी जी का काम वे बस सह रहे थे. लोअर मिडिल क्लास जो अपर मिडिल क्लास बन रहा है, इसमें श्रीमाली जी दुखों से मुक्ति देखते हैं. वे सोच नहीं पा रहे हैं कि दौलत के जरिए अपर मिडिल क्लास मुक्ति पाने की जगह एक-मंजिले मकान से फ्लैट के दड़बे में पहुँच गया है. रिश्ते उसे तोड़ने पड़ रहे हैं, सम्वेदनाओं की हत्या करनी पड़ रही है और भविष्य पैसों की दरकार पर खड़ा हो रहा है.

तभी नयना देवी आकर बोली, ‘‘चलिये हमारा क्लब भी देख लीजिये और चाहें तो कुछ फोटोग्राफ भी ले लें.’’

एक बोर्ड लगा था स्टैंड पर जिसमें आम और नींबू के खट्टे-मीठे अचार डालने की विधि लिखी थी. एक औरत कह रही थी, ‘‘आम की फसल का मौसम नहीं है. कल आप लोग घर से बारह रसीले नीबू व अनुपात में मसाले लाइयेगा. अचार डालकर आप घर ले जाइयेगा. दस दिन बाद घर वालों को चखाइयेगा. धूप दिखा-दिखा के रखनी होगी अचार की शीशी.’’

कोई पन्द्रह लड़कियाँ और औरतें कापियों पर बोर्ड पर लिखे को उतार रही थीं.

नयना मिलाती है, ‘‘मालिनी जी और आप देवेन जी, कसौली पर आलेख और किताब तैयार कर रहे हैं.’’

मालिनी जी नयना देवी की तरह गौर वर्ण सुन्दर थीं. उनके दाहिने गाल में जब वे मुस्कराती थीं तो गड्ढा पैदा हो जाता था, भँवर की मानिन्द. मगर यह तय करना मुमकिन नहीं था कि दोनों में से ज्यादा सुन्दर कौन है. मगर मन ही मन पक्षाघात के शिकार श्रीमाली जी से ईर्ष्‍या उठ रही थी कि इतनी सुन्दर स्‍त्री उन्‍हें मिली थी. सुन्दर ही नहीं डेडीकेटेड भी.

मालिनी जी मुझे दूसरे कमरे में ले गयीं जहाँ हाथ से चलाने वाली छह-सात सिलाई मशीनें रखी थीं और कोई बारह-तेरह लड़कियाँ और औरतें सिलाई व तुरपाई कर ही थीं. मालिनी जी बताती हैं कि सबसे ज्यादा दवाब लोअर मिडिल क्लास की औरतों को झेलना पड़ता है जिनके ऊपर घर, बच्चे, माता-पिता व रख-रखाव की जिम्मेदारी होती है. असल कारण आर्थिक तंगी होती है. ये औरतें वक्त निकालकर अचार डालना, रुमाल, मैक्सी, सलवार-सूट और मर्दों का कुर्ता-पाजाम सिलना सीखकर बाजार से भी कमाती हैं और घर भी संभालती हैं इनकी कल्पना शक्ति भी काम आती रही है.

‘‘इससे इनपर बोझ नहीं बढ़ता होगा?’’

‘‘नहीं! बोझ कम नहीं होता हो मगर इससे उन्हें आत्मनिर्भरता का सुख जरूर मिल जाता है. आप तो चंडीगढ़ होते आये हैं. रास्ते में अचार की दुकानें मिली होंगी. मुर्गे व बकरे के मीट तक का अचार बिकता है. सी.एसण्डी. कैन्टीन में इनके बनाये कपड़े और अचार खूब खरीदे जाते हैं. और भी चीजें ये बनाती हैं. आर्थिक स्‍वतंत्रता इनकी परतंत्रता कम करती है. मन मार के नहीं रहना पड़ता है.’’

फिर वे मुझे एक तीसरे कमरे की ओर ले गयीं तो पूरी तरह अँधेरा था स्विच दबाकर उन्होंने लाइट जला दी. कोई दस औरतें ध्यान की मुद्रा में बैठी थीं. मालिनी जी बताती हैं, ‘‘अँधेरे और उजाले से ध्यानमग्न औरतों को कोई फर्क नहीं पड़ता है.’’

‘‘क्या ये यहाँ योग करना सीखती हैं?’’

हँसी मालिनी जी. गाल पर भँवर गहरी हो गयी, ‘‘इन्हें जिन्दगी में बहुत खालीपन महसूस होता था वे महसूस करती थीं कि वे सिर्फ फौजी पति के लिए नहीं सजती हैं अपितु उन्‍हें उनके सीनियर्स के लिए भी सजना पड़ता है. सीमा-रेखा बनाये रखने में इन्हें गहरी तकलीफ होती थी क्योंकि सीनियर्स की डिमांड आगे भी बढ़ती थी. औरत कुर्बान होती थी पति के लिए औरत ही मगर वही पति उसे कुलटा और रंडी कहने लगा था अजीब बात है ना. पति चाहता है कि लक्ष्मण रेखा तक जाकर लौट आयें. पर हर एक के लिए क्या यह सम्भव होेता था?’’

‘‘क्या ये सब फौजी अफसरों की पत्नियाँ हैं’’

‘‘दो को छोड़कर. एक तहसीलदार की पत्नी है और दूसरी एक बड़े कान्ट्रेक्टर की घरवाली.’’

‘‘यहाँ क्या सीख रही हैं ये?’’

‘‘ध्यान. जिससे अपने को समझकर पहचान सकें. अपने कमजोर बिन्दुओं को शक्तिशाली बनायें.’’

मैंने देखा कि नयना देवी एक औरत के कान में कुछ कह रही थी. पूछता हूँ, ‘‘अपने को समझने से क्या दुनिया समझी जा सकती है?’’

‘‘खुद को जानना सबसे कठिन काम है. हमें कहाँ रुकना और कहाँ तक बहना है यह तो पता चल ही जाता है. हम दूसरों को भी रोक सकते हैं’’

‘‘आप ब्रेन स्टार्मिंग सेशन और शुरू कीजिये इससे आपको आगे के परिवर्तन की सूचना भी मिलती रहेगी.’’

उसके बाद मालिनी जी एक खुले कमरे में ले गयीं जहाँ एक ओर चाक पर मिट्टी लगाकर लड़कियाँ मूर्ति गढ़ रही थीं. दूसरी तरफ कुछ लड़कियाँ और औरतें पहाड़ी आर्ट को रूपाकार दे रही थीं. मालिनी जी कहती हैं, ‘‘मिट्टी से अजीब-अजीब आकृतियाँ गढ़ती हैं ये लड़कियाँ. इनकी मूर्तियों की डिमांड बढ़ती ही जा रही है. अल्मोड़ा आर्ट, वर्ली आर्ट, मधुबनी आर्ट वगैरा-वगैरा का आपने नाम सुना होगा. मगर हिमाचल की अपनी आर्ट भी है. दूर-दूर घर, जानवरों और चोरों का डर दूर करने के लिए औरतें द्वार पर आकृतियाँ बनाती रहती हैं हिमाचल में फलों के बहुत बगीचे हैं सेब तो हद का होता है. बादाम के पेड़ भी खूब हैं और चीड़ वन भी खूब हैं ये औरतें जिन्दगी में काम आने वाली चीजों के चित्रा बनाती हैं सब्जियाँ, फल, कपड़ों पर डिजाइन, चिलम, हुक्का, देवी-देवता और जानवरों को डराने वाली आकृतियाँ.’’

‘‘योग, मूर्तिकला और पेंटिंग्स, कौन सिखाता है?’’

‘‘नयना. जो आपको यहाँ लाई है.’’

‘‘बाप रे. बहुत गुणी है. मैं तो उन्‍हें फैशनेबल गुडि़या समझे था’’

‘‘अब ब्रेनस्टार्मिंग क्लासेज़ भी हम शुरू करेंगे. नयना ने नोट कर लिया है.’’

चलते वक्त नयना देवी से मैंने कहा, ‘‘आपका और वक्त लूंगा. टूरिज्म पर इमारत खड़ी करने वाले इस हिस्से में बहुत कुछ है. अनएक्सप्लोर्ड, अनटच्ड!’’

हँसी नयना देवी, ‘‘उम्र में तुमसे पन्द्रह साल बड़ी हूँ. क्या रोमांस करना चाहते हो मुझसे?’’

‘‘बाल्जाक, नेपोलियन वगैरह कई हुए हैं जो अपने से बड़ी औरतों से ही प्यार करते थे.’’

‘‘बाप रे! मुझसे कम बेहतर नहीं हैं मालिनी जी. गाल में गड्ढा भी आता है.’’

‘‘चुप! बकवास नहीं!’’ इन्‍हें बाहर तक छोड़ आओ, नयना देवी से मालिनी जी कहती हैं

घूमता हुआ फोटोग्राफर के यहाँ होते हुए सुजान की चक्की पर पहुँच जाता हूँ गढ़कल. रात होटल में खाना खाने का निमत्रंण देता हूँ तो हो-हो कर हँस पड़ता है सुजान, ‘‘उम्र से कम लगती हो. फैशनेबल नजर आती हो पर बड़ी गूढ़ है नयना. मर-मिटे तो नहीं हो उस पर!’’

‘‘ऐसी बात नहीं है. पर एक बात बताएं. इतनी पी क्यों जाते हो?’’

गम्भीर हो गया सुजान. फुसफुसाया, ‘‘इस नयना के गम में.’’

‘‘क्या गम है?’’

‘‘तुमसे छुपाऊंगा नहीं पर औरों को मत बताना. पन्द्रह-सोलह साल से मैं बेकार हूँ वह औरत है. चाहती तो छिनाला कर सकती थी. पर नहीं किया उसने.’’

चाय पीकर मैं कसौली चला आया गढ़कल से. सुजान कुछ आगे बोला नहीं था रात का खाना मैंने कमरे ही मँगाया और रम व व्हिस्की के अद्धे रख दिये. सुजान ने रम की शीशी खाली कर दी और झूमने लगा. प्राणसिंह उसे लड़खड़ाते कदमों से बाहर लेकर घर पहुँचा होगा. नयना देवी ने अब एक सिगरेट मेरे पैकेट से निकाल मुँह में लगा जला ली थी. औरत का सिगरेट पीना मुझे अच्छा नहीं लगा. मैं खुद को रोक नहीं सका और कह बैठा, ‘‘मुझे तो तुम सब सैक्स पर्वर्टेड औरत लगती हो.’’

‘‘इसमें शक क्या है? मगर अपने परवर्जन को मैंने अपनी ताकत बनाया है. मौत को जिन्दगी बना के जीती हूँ.’’

‘‘इसी सैक्स फ्रस्ट्रेशन को लेकर योगा को तुमने अपनाया.’’

फ्रस्ट्रेशन कहो या परवर्जन, क्या फर्क पड़ता है. लोककला हमेशा आँसू पोंछती है और ध्यान शक्ति को केन्द्रित करता है. मगर दोनों में सर्जक का अहम जरूर जागता है. कभी मालिनी भी मेरी तरह विक्षिप्त रहती थी. एक दिन हम दोनों ने ऊँचाई से कूदकर जान देने की बात सोची थी. आत्महत्या करने के लिए हम दोनों एक चीड़ वृक्ष के साये में खड़े थे. अनायास हवा चलने लगी थी. चीड़ वृक्ष की डालियाँ लहकने लगी थीं. दोनों के अन्दर एक ही विचार उभरा था क्या है अपना इस चीड़ वृक्ष का? हवा नहीं तो यह चुपचाप खड़ा रहता है. हवा आयी तो झूम लिया. धरती को धसकने से क्यों रोकता है यह? तब मुझे सुजान का और मालिनी को श्रीमाली का खयाल आया. कौन उसकी देखभाल करेगा? वहीं दूसरों के लिए एक चेतना जागी और श्रीमाली क्लब शुरू हो गया. श्रीमाली जी पक्षाघात के उपरान्त भी पैसे को बड़ा मानते थे क्योंकि नौकरी में खूब रिश्वत खाते रहे थे.’’

‘‘इसीलिए बसंत के स्कूल पर गर्वित हैं’’

‘‘मगर मालिनी ने कह दिया कि अगर इसे उनके लिए जीना है तो अपने लिए भी. यदि उन्हें स्वीकार नहीं है तो तो वे मेरे यहाँ रहेंगी. श्रीमाली साहब जानते थे कि पैसा होते हुए भी कोई उनकी देखभाल के लिए तैयार नहीं होगा. हारकर मालिनी की बात माननी पड़ी. अब तो हिमाचल सरकार भी श्रीमाली क्लब फॉर लेडीज की मदद करने को तैयार हैं.’’

‘‘मतलब यह कि श्रीमाली क्लब कोई मामूली शै नहीं है. मालिनी और नयना ने अपने दग्ध को सरोवर में तब्दील कर दिया है. जाने कितनी औरतें उस सरोवर में नहाकर अपनी शक्ति पहचान रही हैं.’’ मेरी अरुचि अब प्रशंसा में ढल रही थी.

वह हँसती है. उसकी आँखों में कमल दिखाई देते हैं, ‘‘हाय कितनी अच्छी बातें करते हो. अगर मेरी उम्र पन्द्रह साल पीछे हो जाती तो बस तुम्हारी ही आवाज सुनती रहती. खैर अब चलूँगी क्योंकि रात का दस बज रहा है.’’

हम दोनों कोहरे भरी सड़क पर आ जाते हैं पोल की बत्तियाँ धुँधला प्रकाश छोड़ रही थीं. वह पूछती हैं, ‘‘कब तक रुकोगे?’’

‘‘शायद कल चल दूँ.’’ बोझा उठाने वाले मजदूर से लेकर हिमाचल टूरिज्म के रेस्त्रां के बेयरे और मैनेजर के, पर्यटकों के, सर्विस ऑफीसर्स, उनके वच्चों के, सब्जी और अन्य सामान बेचने वालों के साक्षात्कार और फोटो मेरे पास जमा हैं चंडीगढ़ में पहला आर्टिकल तैयार कर दिल्ली चला जाऊँगा.

‘‘दिल्ली में बीवी की याद कुलमुला रही होगी.’’

‘‘अरे नहीं! मैंने शादी ही नहीं की है. जिन्दगी के पैंतीस साल तब भी बुरे नहीं रहे.’’

‘‘सबका नाम लिया पर श्रीमाली क्लब का नहीं. पूछा नहीं कि इधर श्रीमाली तो होते नहीं हैं फिर एक हिमाचली परिवार का सरनेम श्रीमाली कैसे है? श्रीमाली जी के पिता एक बड़े बंगले के माली थे. इसी कोठी वाले ने पढ़ाया और सरनेम दिया श्रीमाली. हम भी कोई बहुत ऊँची जाति से नहीं हैं’’

‘‘जाति सिर्फ अहंकार का विषय हो गयी है.’’

‘‘एक बात कहूँ. मैं जो कर रही हूँ वह भी एक सांत्वना मात्र है. हिन्दुस्तानी औरत की देह भी अब कीमती नहीं रही है. आगरा, पुणे, बंगलूर और अन्य पर्यटन की जगहों पर ड्रग माफिया सोवियत रूस के टूटते ही सक्रिय हो गये हैं उक्रेन, तजाकिस्तान न जाने कहाँ से गोरी लड़कियाँ प्रोसेस्ड ड्रग्स लेकर आती हैं. दिन में शाम तक ड्रग बेचती हैं और रात में बिस्तर सजाती हैं अस्मिता उनके लिए मजाक बन चुकी है. वे यहाँ से कमाकर अपना और माफिया का पैसा ले जाती हैं और साथ ले जाती हैं अनप्रोसेस्ड ड्रग मेटेरियल. हिन्दुस्तान को ड्रग माफिया केन्द्र बना रहे हैं हिन्दुस्तानी औरत की देह कीमत भी कम हो रही है.

‘‘सरकार नहीं रोकती है?’’ मनोभावों को छुपाकर कहता हूँ.

‘‘पुलिस, राजनीतिज्ञ, अफसर हर एक की अपनी कीमत है.’’

‘‘उस कीमत को नयना ठुकराती है.’’ आगे बढ़कर उसे छाती से लगा चूम लेता हूँ.

‘‘क्या करते हो?’’ घबरा के कहती है नयना.

‘‘उम्र का फासला तोड़ रहा था’’ कहते हुए लौट पड़ता हूं .

नयना उसे जाते हुए देखती रहती है जब तक वह अदृश्य नहीं हो जाता है.

एक निश्वास खींच पलटती है द्वार की तरफ...इस आखिरी रात के चुम्बन का वह क्या करे? स्मृति में संभाले रहे या भूल जाये.

विजय

जन्म: 6 सितम्बर 1936, आगरा.

कृतियाँ: कहानी-संग्रह: ‘हथेलियों का मरुस्थल’, ‘जंगल बबूल का’, ‘बौसुरीली’, ‘नीलकंठ चुप है’, ‘अभिमन्यु’, ‘गंगा और डेल्टा’, ‘किले’, ‘गमन’, ‘घोड़ा बाजार’, ‘वंशबेल’, ‘गाथा’, ‘पड़ाव’, ‘पोस्टर से झाँकते चेहरे’, ‘जण्झण्द.’, ‘दास्ताने-लछुुनी’, उपन्यास: ‘साकेत के यूकलिप्टस’, ‘सीमेंट नगर’, ‘लौटेगा अभिमन्यु’, ‘नीड़ का तिमिर’, ‘मुक्तिबोध’, ‘गाँव की बेटी’, बाल साहित्य: ‘सलोनी की जिद’, ‘ईनाम और जुर्माना’, अनुवाद कार्य: जोगिंदर पाल की कुछ कहानियाँ, लघुकथाएँ व उपन्यास: ‘पार परे’ (उर्दू से हिन्दी). अंग्रेजी, उर्दू, उडि़या, तेलगू, मलयालम में अनेक कहानियों का अनुवाद हुआ है.

संप्रति: रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन में वैज्ञानिक (सेवानिवृत)

सम्पर्क: 115 बी, पॉकेट जे एंड के, दिलशाद गार्डन, दिल्ली-110095
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